Tuesday, March 26, 2019

‘नाटककार और रंगमंच’---मोहन राकेश

आज विश्व रंगमंच दिवस है. पढ़ते हैं मोहन राकेश का यह प्रसिद्ध लेख जिसमें उन्होंने रंगमंच को नाट्यकार  के नजरिये से  देखने समझने का प्रयत्न किया  है.  आज भी उनके सवाल शंकाएं कितनी प्रासंगिक हैं- 
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            और लोगों की बात मैं नहीं जानता, केवल अपने लिए कह सकता हूँ कि आज की रंगमंचीय गतिविधि में गहरी दिलचस्पी रखते हुए भी मैं अब तक अपने को उसका एक हिस्सा महसूस नहीं करता। कारण अपने मन की कोई बाधा नहीं, अपने से बाहर की परिस्थितियाँ हैं। एक तो अपने यहाँ, विशेष रूप से हिन्दी में, उस तरह का संगठित रंगमंच है ही नहीं जिसमें नाटककार के एक निश्चित अवयव होने की कल्पना की जा सके, दूसरे उस तरह की कल्पना के लिए मानसिक पृष्ठभूमि भी अब तक बहुत कम तैयार हो पायी है।
          रंगमंच का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसकी पूरी कल्पना परिचालक और उसकी अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। नाटककार का प्रतिनिधित्व होता है एक मुद्रित या अमुद्रित पांडुलिपि द्वारा, जिसकी अपनी रचना-प्रक्रिया मंचीकरण की प्रक्रिया से अलग नाटककार के अकेले कक्ष और अकेले व्यक्तित्व तक सीमित रहती है। इसीलिए मंचीकरण की प्रक्रिया में परिचालक को कई तरह की असुविधा का सामना करना पड़ता है—नाटककार से उसे कई तरह की शिकायत भी रहती है। ऐसे में यदि नाटककार समझौता करने के लिए तैयार हो, तो उसकी पांडुलिपि की मनमानी शल्य-चिकित्सा की जाने लगती है—संवाद बदल दिये जाते हैं, स्थितियों में कुछ हेर-फेर कर दिया जाता है और चरित्रों तक में हस्तक्षेप किया जाने लगता है। पर यदि नाटककार का अहं इसमें आड़े आता हो, तो उस पर रंगमंच के ‘सीमित ज्ञान’ का अभियोग लगाते हुए जैसे मजबूरी में नाटक को ‘ज्यों का त्यों’ भी प्रस्तुत कर दिया जाता है।
नाटककार की स्थिति एक ऐसे ‘अजनबी’ की रहती है जो केवल इसलिए कि पांडुलिपि उसकी है, एक नाटक के सफल अभिनय के रास्ते में खामखाह अड़ंगा लगा रहा हो। वैसे यह असुविधा भी तभी होती है जब नाटककार दुर्भाग्यवश उसी शहर में रहता हो जहाँ पर कि नाटक खेला जा रहा हो। अन्यथा नाटक को चाहे जिस रूप में खेलकर केवल उसे सूचना-भर दे देने से काम चल जाता है।
कुछ वर्ष पहले मेरा नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ इलाहाबाद में खेला गया था, तो उसमें से अम्बिका की भूमिका हटाकर उसकी जगह बाबा की भूमिका रख दी गयी थी। मुझे इसकी सूचना मिली थी नाटक के अभिनय के दो महीने बाद। कुछ परिचालकों की दृष्टि में एक नाटककार को अपने नाटक के साथ इतना ही सम्बन्ध रखना चाहिए कि वह अभिनय की जो थोड़ी-बहुत रायल्टी दी जाए, उसे लेकर सन्तुष्ट हो रहे। कुछ-एक तो नाटककर के इतने अधिकार को भी स्वीकार नहीं करना चाहते।
          इस सिलसिले में मुझे डेढ़-दो साल पहले बम्बई में सत्यदेव दुबे से हुई बातचीत का ध्यान आता है। दुबे की रंग-निष्ठा का मैं प्रशंसक हूँ, परन्तु आद्य रंगचार्य का ‘सुनो जनमेजय’ खेलने के बाद इस प्रश्न को लेकर उन्होंने नाटककार के साथ जो रुख अपनाया, वह नि:सन्देह प्रशंसनीय नहीं था। मेरी बात उनसे ‘सुनो जमनेजय’ के सन्दर्भ में ही हुई थी—उससे पहले जब उन्होंने मेरा नाटक खेला था, तो मैंने यह प्रश्न उनके साथ नहीं उठाया था। तब कारण था दुबे की लगन और उनके कार्य के प्रति मेरा व्यक्तिगत स्नेह। ‘सुनो जनमेजय’ के सन्दर्भ में भी बात रायल्टी को लेकर उतनी नहीं थी, जितनी आज की रंग-सम्भावना में नाटककार के स्थान और उसके अधिकारों को लेकर। वह बातचीत मेरे लिए दुखदायी इसलिए थी कि नाटककार और परिचालक के बीच जिस सम्बन्ध-सूत्र के उत्तरोत्तर दृढ़ होने पर ही हमारी निजी रंगमंच की खोज निर्भर करती है, उसमें उसी को झटक देने की दृष्टि लक्षित होती थी।
           रंगमंच की पूरी प्रयोग-प्रक्रिया में नाटककार केवल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह कि नाटककार की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी अलग चारदीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग बन सके। साथ यह भी कि वह उस प्रक्रिया को अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके।
           यहाँ इतना और स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं इस बात की वकालत नहीं करना चाह रहा कि बिना नाटककार की उपस्थिति के उसके किसी नाटक की परिचालना की ही न जाए—ऐसी स्थिति की कल्पना अपने में असम्भव ही नहीं, हास्यास्पद भी होगी। न ही मैं यहाँ उस स्थिति पर टिप्पणी करना चाहता हूँ जहाँ नाटककार स्वयं परिचालना का भी दायित्व अपने ऊपर ले लेता है। नाटककार-परिचालन या परिचालन-नाटककार की स्थिति अपने में एक स्वतन्त्र विषय है जिसकी पूर्तियों और अपूर्तियों की चर्चा अलग से की जा सकती है। यद्यपि हमारे यहाँ गम्भीर स्तर पर इस तरह के प्रयोगों से अधिक उदाहरण नहीं हैं, फिर भी मराठों में पु.ल. देशपांडे और बँगला में उत्पल दत्त के नाट्य-प्रयोग इन दोनों श्रेणियों के अन्तर्गत विचार करने की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत कर सकते हैं। यहाँ मेरा अभिप्राय नाटक की रचना-प्रक्रिया के रंगमंच की प्रयोगशीलता के साथ जुड़ सकने की सम्भावनाओं से है। एक नाटक की रचना यदि रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत होती है, तो बाद में उसे कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में खेला जाता है, इसमें नाटककार की भागिता का प्रश्न नहीं रह जाता, रह जाता है केवल उसके अधिकारों का प्रश्न।
         रंगमंच के प्रश्न को लेकर पिछले कुछ वर्षों से बहुत गम्भीर स्तर पर विचार किया जाने लगा है—उसकी सम्भावनाओं की दृष्टि से भी और उन ख़तरों की दृष्टि से भी जो उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। बड़े-बड़े परिसंवादों में हम बड़े-बड़े प्रश्नों पर विचार करने के लिए जमा होते हैं। रंगमंच को दर्शक तक ले जाने या दर्शक को रंगमंच तक लाने के हमें क्या उपाय करने चाहिए? प्रयोगशील रंगमंच को आर्थिक आधार पर किस तरह जीवित रखा जा सकता है? किन तकनीकी या दूसरे चमत्कारों से रंगमंच को सामान्य दर्शक के लिए अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है? सर्वांग (टोटल) रंगमंच की सम्भावनाएँ क्या हैं? विसंगत रंगमंच के बाद की दिशा क्या होगी? घटना-विस्फोट के प्रयोग हमें किस रूप में करने चाहिए? इन सब परिसंवादों में जाकर लगता है कि ये सब बड़ी-बड़ी बातें केवल बात करने के लिए ही की जाती हैं—अपने यहाँ की वास्तविकता के साथ इनका बहुत कम सम्बन्ध रहता है।
         यूँ उन देशों में भी जहाँ के लिए ये प्रश्न अधिक संगत हैं, अब तक आकर वास्तविकता का साक्षात्कार कुछ दूसरे ही रूप में होने लगा है। बहुत गम्भीर स्तर पर विचार-विमर्श होने के बावजूद रंगमंच (अर्थात् नाटक से सम्बद्ध रंगमंच का अस्तित्व वहाँ भी उत्तरोत्तर अधिक असुरक्षित होता जान पड़ता है। परन्तु हमें उधर के प्रश्नों पर विचार करने का मोह इतना है कि हम शायद तब तक अपनी वास्तविकता के साक्षात्कार से बचे रहना चाहेंगे जब तक कि विश्व-मंच पर ‘अर्द्ध-विकसित देशों में रंगमंच की स्थिति’ जैसा कोई विषय नहीं उठा दिया जाता और तब भी बात शायद कुछ आँकड़ों के आदान-प्रदान तक ही सीमित रह जाएगी।
हमारे यहाँ या हमारी स्थिति के हर देश में रंगमंच का विकास-क्रम वही होगा जो अन्य विकसित देशों में रहा है, यह भी एक तरह की भ्रान्त धारणा है। शीघ्र से शीघ्र उस विकास-क्रम में से गुज़र सकने के प्रयत्न में हम प्रयोगशीलता के नाम पर अनुकरणात्मक प्रयोग करते हुए किन्हीं वास्तविक उपलब्धियों तक नहीं पहुँच सकते, केवल उपलब्धियों के आभास से अपने को अपनी अग्रगामिता का झूठा विश्वास दिला सकते हैं। यह दृष्टि बाहर से रंगमंच को एक ‘नया’ और ‘आधुनिक’ रूप देने की है, अपने निजी जीवन और परिवेश के अन्दर से रंगमंच की खोज की नहीं। उस खोज के लिए आवश्यक है अपने जीवन और परिवेश की गहरी पहचान—आज के अपने घात-प्रतिघातों की रंगमंचीय सम्भावनाओं पर दृष्टिपात। यह खोज ही हमें वास्तविक नए प्रयोगों की दिशा में ले जा सकती है और उस रंगशिल्प को आकार दे सकती है जिससे हम स्वयं अब तक परिचित नहीं हैं।
          अपने रंग-शिल्प पर बाहरी दृष्टि से विचार करने के कारण ही हम अपने को न्यूनतम उपकरणों की अपेक्षा से बँधा हुआ महसूस करते हैं और यह अपेक्षा तकनीकी विकास के साथ-साथ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। साथ ही हमारी निर्भरता भी बढ़ती जा रही है और हम अपने को एक ऐसी बन्द गली में रुके हुए पा रहे हैं जिसकी सामने की दीवार को इस या उस ओर से बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता पाकर ही तोड़ा जा सकता है। परन्तु मुझे लगता है कि हम इस गली में इसलिए पहुँच गये हैं कि हमने दूसरी किसी गली में मुड़ने की बात सोची ही नहीं—किसी ऐसी गली में जो उतनी हमवार न होते हुए भी कम-से-कम आगे बढ़ते रहने का मार्ग तो दिये रहती।
          तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने मन में विकास की एक दिशा है, परन्तु उससे हटकर एक दूसरी दिशा भी है और मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और मानव-पक्ष को समृद्ध बनाने की है—अर्थात् न्यूनतम उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने की। यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्त्वपूर्ण हो उठता है—उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण जितना कि हम अब तक समझते आये हैं।
          पिछले दिनों दो-एक परिचर्चाओं में मैंने नाटककार के रंगमंच की बात इसी सन्दर्भ में उठायी थी। मैंने पहले ही कहा है कि इसका अर्थ नाटककार को परिचालक की भूमिका देना नहीं है—बल्कि परिचालना-पक्ष पर दिया जानेवाला अतिरिक्त बल हमें अनिवार्यत: जिस गतिरोध की ओर लिये जा रहा है, रंगमंच को उससे मुक्त करना है। शब्दों का रंगमंच केवल शब्दकार का रंगमंच नहीं हो सकता—शब्दकार, परिचालक और अभिनेता, इनके सहयोगी प्रयास से ही उसके स्वरूप का अन्वेषण और परिसंस्कार किया जा सकता है। इसका स्वीकृति-पक्ष है शब्दकार को अपनी रंग-परिकल्पना का आधार-बिन्दु मानकर चलना और अस्वीकृति-पक्ष उन सब आग्रहों से मुक्ति जिनके कारण रंग-परिचालना का मानवेतर पक्ष उत्तरोत्तर अधिक बल पकड़ता दिखाई देता है।
          इसके लिए अपेक्षित है शब्दकार का पूरी रंग-प्रक्रिया के बीच उसका एक अनिवार्य अंग बनकर जीना—अपने विचार को उस प्रक्रिया के अन्तर्गत ही शब्द देना—उसी तरह अपने आज के लिखे हर शब्द को कल तक के लिए अनिश्चित और अस्थायी मानकर चलना अर्थात परिचालक और अभिनेता की तरह ही शब्दों के स्तर पर बार-बार रिहर्सल करते हुए आगे बढऩा। परन्तु यह सम्भव हो सके, इसके लिए परिचालक की दृष्टि में भी एक आमूल परिवर्तन अपेक्षित है—उसे इस मानसिक ग्रन्थि से मुक्त होना होगा कि पूरी रंग-प्रक्रिया का नियामक वह अकेला है। उस स्थिति में वह अकेला नियामक होगा जब इस तरह की रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत एक नाटक का निर्माण हो चुकने के बाद वह उसे प्रस्तुत करने जा रहा हो—अर्थात् जब अन्तत: नाटक एक निश्चित पांडुलिपि या मुद्रित पुस्तक का रूप ले चुका हो। परन्तु जिस रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत वह पांडुलिपि निर्मित हो रही हो, उसमें मूल नियामक नाटककार ही हो सकता है और परिचालक वह मुख्य सहयोगी जो उसके हर अमूर्त विचार को एक मूर्त आकार देकर—या न दे सकने की विवशता सामने लाकर स्वयं भी लेखन-प्रक्रिया में उसी तरह हिस्सेदार हो सकता है जैसे प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया में नाटककार।
          इसका कुछ अनुभव मुझे उन दिनों का है जिन दिनों कलकत्ते में रहकर मैंने ‘लहरों के राजहंस’ का तीसरा अंक फिर से लिखा था। मुझे यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि बिना रात-दिन श्यामानन्द के साथ नाटक के वातावरण में जिये, आधी-आधी रात तक उससे बहस-मुबाहिसे किये, और नाटक की पूरी अन्विति में एक-एक शब्द को परखे वह अंश अपने वर्तमान रूप में कदापि नहीं लिखा जा सकता था। परन्तु साथ यह भी कहना चाहूँगा कि श्यामानन्द के प्रस्तुतीकरण में नाटक का उतना अंश जो शेष अंश से बहुत अलग पड़ गया था, उसके पीछे भी यह सहयोगी प्रयास ही मुख्य कारण था। कम-से-कम हिन्दी नाटक के सन्दर्भ में शायद पहली बार लेखन और प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया को उस रूप में साथ जोड़ा जा सका था। इसे सम्भव बनाने के लिए जो अनुकूल वातावरण मुझे वहाँ मिला था, मैं समझता हूँ कि उसी तरह के वातावरण में रंगमंच की वास्तविक खोज की जा सकती है—लेखन के स्तर पर भी और परिचालना के स्तर पर भी।

Thursday, June 7, 2018

सबके हबीब - जीवेश प्रभाकर

( हबीब साहब की पुण्यतिथि पर )
  भारतीय रंगमंच की कोई भी चर्चा हबीब तनवीर के  बिना अधुरी ही रहेगी,  हबीब तनवीर पर चर्चा  का मतलब रंगमंच की कई शैलियों, अभिव्व्यक्तियों, अस्मिताओं  इत्यादि पर एक साथ बात करना है।     सच तो यह है कि हबीब तनवीर के रंगकर्म और व्यक्तित्व के इतने पहलू हैं कि सब को समेट पाना नामुमकिन है ।उनका व्यक्तित्व किसी नाटक के पात्र के जैसा ही दिलचस्प है । विश्व थियेटर के ज़बरदस्त जानकार के बाद भी उन्होंने अपनी शैली लोक में तलाशी, सिनेमा के मोहपाश में नहीं बंधे, लगातार ग्रामीण कलाकारों के साथ काम किया । उन्होंने थिएटर को एक नई दिशा व अर्थ दिए । बुर्जुआई थिएटर परम्परा को जनसुलभ व जनवादी स्वरूप प्रदान किया ।  उन्होंने उस दौर मे उच्च व मध्यवर्गीय प्रवृत्ति और बंद रंगशालाओं के  लिए हो रहे बुर्जुआ रंगकर्म को चुनोती देते हुए उसे लोक का व्यापक संदर्भ दिया ।अपने रंगकर्म के ज़रिए उन्होंने इस धारणा की पुष्टि की कि जो लोकल है वही ग्लोबल भी हो सकता है । उनकी शैली और नाटक सभी  दर्शक वर्ग द्वारा देखे व सराहे गए ।
    हबीब तनवीर के लिए नाटक खुराक और रंगमंच ही उनका घर था। उन्होंने रंगमंच को आम आदमी के खोला, उस पर उन लोगों की भागादारी सुनिश्चित की । उन्होंने अपने नाटकों के लिए लोक की समृद्ध परम्परा को माध्यम बनाया । मगर सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोकप्रेमी रंगकर्मी हबीब तनवीर  ने अपने नाटकों की ‘लोक’ की पृष्ठभूमि को प्रयोगधर्मिता के नाम पर विद्रूप नहीं होने दिया, बल्कि अधिक सार्थक एवं प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहे। भारतीय नाट्य परंपरा में लोक को प्रतिष्ठित करने के जिन उद्यमों की हम सराहना करते आए हैं, हबीब तनवीर का सम्पूर्ण रंगकर्म आधुनिक नाट्य में उसका नेतृत्व करता रहा है।  लोक’ उनके यहां हाशिए पर नहीं है, बल्कि उस पूरे नाट्य प्रदर्शन का मुख्य माध्यम होने के साथ ही पूरी लोक परम्परा का  उद् घोष है । इस कारण से तनवीर साहब का रंगकर्म केवल हिंदी का ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि रंगकर्म है जिसमें हमें भारतीय जन की आस्था भी दिखाई देती है तो आकांक्षा भी,संघर्ष भी दिखाई देता है तो सपना भी। हबीब तनवीर ने भारतीय रंगकर्म को देशज चेतना तथा संस्कारों के साथ-साथ जनबोली में  विकसित व समृद्ध किया ।हबीब साहब यह मानते थे कि भारतीय संस्कृति के केंद्र में ‘लोक’ ही है तथा ‘लोक’ के साथ जुड़कर ही सार्थक रंगमंच की तलाश पूरी हो सकेगी। इसीलिए अपनी बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए वह भारत के केंद्र में पहुंचते हैं, वे कहते थे कि  “आज भी गांवों में भारत की नाट्य परंपरा अपने आदिम वैभव और समर्थता के साथ ज़िदा है।उनके पास एक गहरी लोकपरंपरा है और इस परंपरा की निरंतरता  आधुनिक रंगमंच के लिए आवश्यक है।”
हबीब साहब  का मानना था, “हमें अपनी जड़ों तक गहरे जाना होगा और अपने रंगमंच की निजी शैली विकसित करनी होगी जो हमारी विशेष समस्याओं को सही तरीके से प्रतिबिंबित कर सके।” इसी आधार पर उन्होनें अपने प्रायः सभी नाटकों के माध्यम से नाटकों के पूर्वकालिक स्थापित मान्यताओं को खारिज किया और नए प्रयोगों व  नए प्रतिमान  गढ़ने के लिए ‘लोक’ में व्याप्त उस समृद्ध परम्परा व खजाने से रूबरू हुए जिसे आधुनिकता के नाम पर बुर्जुआ रंग प्रेमियों की दुनिया ने हाशिए पर डाल दिया था।
‘आगराबाज़ार’ और ‘मिट्टी की गाड़ी’ से  जिस नए प्रयोग व शैली की शुरुवात की हबीब साहब को उसका मुकम्मल आकार ‘गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद’ से मिला।‘चरनदास चोर’ के मंचन के पश्चात तो हबीब साहब के इस लोकरंग प्रधान नए शिल्प व रंग मंचन को दर्शकों की मान्यता ही मिल गई । इसके बाद तो  हबीब साहब की यह शैली भारतीय नाट्य जगत के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय रंग  जगत में प्रतिष्ठित हो गई ।लोक से ली गई यह  परिष्कृत मंचन शैली संस्कृत, लोक और पाश्चात्य शैली का सफल मिश्रण था। चाहे ‘आगरा बाज़ार’ हो या ‘गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद’ हो या ‘चरनदास चोर’ अथवा‘हिरमा की अमर कहानी’ हो;देख रहे हैं नैन हो, सभी मे वे अपने समय तथा लोक के मूल्यों की स्थापना के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहे साथ ही लोक कलाकरों को मुख्य धारा में लाने के प्रयास भी करते रहे थे।हबीब तनवीर के नाटक समकालीनता और रंग परम्परा का धारदार मिश्रण रहे । उनके नाटकों में  आधुनिकता की समीक्षा व चेतना भी विद्यमान हुआ करती थी ।
     गीत संगीत हबीब साहब के नाटको की विशिष्ट पहचान रहे हैं ।  एक तरह से यह कह सकते हैं  कि हबीब साहब ने ऐसी शैली तैयार की जिसमें रंगमंच पर नाट्य कर्म की सभी तरह की अभिव्यक्तियों को प्रभावशाली व सुरुचिपूर्ण तरीके से  समाहित कर प्रस्तुत किया जा सके । इस मकसद में उनके नाटक के गीत काफ़ी असरदार सिद्ध हुए । उनके नाटक  पहले नाटक आगरा बाजार से लेकर चरनदास चोर,देख रहें हैं नैन, बहादुर कलारिन कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना,शाजापुर की शांतिबाई आदि आदि के गीत इसके उदाहरण हैं और जो आज भी उतने ही पसंद किये जाते हैं। हबीब साहब के नाटकों का रंगसंगीत अपने आप मे एक अर्थपूर्ण  विशिष्टता लिए हुए है । हिन्दी रंगमंच के क्षेत्र मे ऐसा रंगसंगीत कम ही मिल पाता है । हबीब साहब दर्शकों के प्रति अपनी पूरी जिम्मेदारी समझते थे इसीलिए वे दर्शकों को टोटल थियेटर का आस्वाद प्रदान करने के लिए कटिबद्ध दिखाई पड़ते हैं।
    एक सितंबर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर के पिता हफीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के  रहने वाले थे। स्कूली शिक्षा रायपुर में पूरी करने के  बाद वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुंचे, जहां से उन्होंने ग्रेजुएशन किया और फिर 1945 में वह मुंबई चले गए।  वहां उनका जुड़ाव इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से हुआ।      बम्बई मे बतौर प्रोड्यूसर वह ऑल इंडिया रेडियो से भी जुड़े। कविताएं लिखीं, फिल्मों में अभिनय भी किया।
इसके  बाद हबीब साहब इंग्लैंड चले गए, जहां तीन साल तक रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स में रंगमंच और उसकी बारीकियों को समझा । फिर दिल्ली आ गए और अपना पहला नाटक 1954 मे आगरा बाज़ार खेला जिसने सबका ध्यान खींचा ।  1959 में हबीब तनबीर ने अपनी रंगकर्मी पत्नी मोनिका मिश्रा  के  साथ मिलकर *नया थिएटर* नाम से एक नाट्य ग्रुप बनाया और जीवन पर्यन्त इसी संस्था के बैनर तले रंगकर्म करते रहे । शुरुआती दौर में इप्टा से जुड़ने के  कारण वामपंथ का उन पर पूरा असर था, जो अंत तक बना रहा इसी के चलते उनके नाटकों में यथार्थ हमेशा अधिक मुखर रहा।  उन्हें कई बार आलोचना के अलावा हमले तक झेलने पड़े । हबीब तनवीर ने  थिएटर के  साथ साथ टी वी सीरियल एवं बॉलीवुड की फिल्मों में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी ।उनको पद्म भूषण, पद्म श्री और संगीत नाटक अकादमी जैसे पुरस्कार मिले थे।सत्तर के दशक में वह राज्यसभा के सदस्य रहे । राज्यसभा के सदस्य बनने वाले दूसरे रंगकर्मी थे. उनसे पहले यह सम्मान पृथ्वी राज कपूर को मिला था।
    अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातनाम इस अद्वितीय रंगकर्मी को  अपने ही शहर व प्रदेश मे बेरुखी व उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा । अलग राज्य बनने के बाद भी उपेक्षा व अनदेखी से वे खून का घूंट पीकर मध्यप्रदेश के भोपाल मे विस्थापित हो गए । आज भी सरकार द्वारा  छत्तीसगढ़ मे इस महान रंगकर्मी को वो सम्मान व स्थान  नही दिया जा रहा है जिसके वे हकदार हैं । हालांकि रंगकर्म से जुड़े लोग उन्हें लगातार याद करते हैं । यही उनकी उपलब्धि भी है कि वे अपने चाहने वालों के दिलों मे एक प्रेरणा बनकर विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं ।
   हमे इस बात का गर्व है कि वे हमारे रायपुर मे जन्मे । वे सदा रंगकर्मियों व रंग दर्शको के प्रेरणाश्रोत बने रहेंगे ।

जीवेश प्रभाकर    

Wednesday, December 13, 2017

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 3- - प्रभाकर चौबे

 रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है। सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
  आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।
जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 3

मई 1945 को रायपुर में जिलाधीश आफिस में गरीब महिलाओं को सड़िया बांटी गई - मेरे मौसा जी ने शाम को मौसी को बताते हुए कहा -'आज कलेक्टर आफिस में गरीब महिलाओं को साड़ी बाटी गई ।
मौसी ने पूछा था - आज क्या है 
मौसाजी ने बताया कि आज हिटलर के खिलाफ लड़ाई में मित्र राष्ट्र की सेना जीत गई हिटलर मारा गया इस खुशी में ।
मौसी ने पूछा था मतलब लड़ाई बंद ।
-- शायदमौसाजी ने कहा था,
मैं मौसा जी के घर बढ़ई पारा में रहने आ गया था । बढ़ई पारा में एक बड़ा कुऑ था - वहाँ गर्मी के दिनों में नहाने जाया करता । कुऑ के पास पीपल का पेड़ था। एक दिन वहाँ एक आदमी पीपल की एक डाल पर उकरू बैठकर कुछ-कुछ बोलने लगा - नीचे झाड़ से  लगाकर एक चादर डाल दी थी । मौसिया जी ने बताया कि यह हरबोला है उधर की घटनाओं की जानकारी दे रहा है । वहाँ काफी लोग जमा हो गए थे । वह क्या बोल रहा हैमेरी समझ में आ नहीं रहा था । लोग नीचे उसकी बिछी चादर पर पैसे अनाज डाल रहे थे । घर आकर मौसिया जी ने बताया कि वह बता रहा था कि उधर 1942 में जमकर आंदोलन हुआ - जवान लड़कों ने टेलीफोन के तार काटेरेल की पांत उखाड़ी - तिरंगा फहरायाधर-पकड़ हुईलड़ाई बंद होने वाली है और उसने कहा भी है कि जिन्ना नाम का नेता पाकिस्तान माँग रहा है - मौसाजी  बुंदेलखंड से 1916 में आए थे इसलिए उसकी बात समझ रह थे ।
उसी साल स्कूल खुलते ही शहर में स्कूल के बच्चों का एक बड़ा जुलूस निकला शिक्षक भी साथ में नारे लगा रहे थे - गाँधी जी की जय । एक पैसा तेल में जिन्ना बेटा जेल में ...। जुलूस कलेक्टरेट में टाऊन हाल गया । वहाँ पुस्तकों की दुकाने लगी थीं एक बात उसी जूलुस में पता नहीं कैसे तो हिन्दू हाई स्कूल के एक छात्र का हाथ मेरे हाथ में आ गया हमने हाथ नहीं छुड़ाया - टाऊन हाल तक गए - उनका नाम बाबूलाल शुक्ला था - मुझसे तीन कक्षा आगे थे - बाद में वे कॉलेज में प्राध्यापक हुए और प्राचार्य भी - बाद तक उनसे भेंट होती रही । टाऊनहाल के पुस्तक मेला से मैंने एक कौमीतराना नाम की पुस्तक खरीदी थी - बाबूलाल जी ने भी ।
       इस जुलूस के एक हफ्ते बाद ही हमारे विद्यालय में हम छात्रों को मिठाईयाँ बांटी जाने लगी अचानक छात्रों का एक हुजूम चिल्लाते हुए स्कूल में पहुँचा - मत खाओ मिठाई । अंग्रेजों की जीत हमारी जीत नहीं है। फेक दो ...और हमने मिठाई का दोना फेंक दिया था। हमारे स्कूल में वे हाल के दीवारों पर कक्षा की दिवारों पर महारानी मेरीमहल की विक्टोरियाजार्ज पंचम के चित्र लगे हुए थे ।
       उन दिनों रायपुर में चार हाई स्कूल थे - गवर्नमेट हाई स्कूलहिन्दू हाई स्कूललारी (सप्रे) हाई स्कूल और सेंटपाल हाई स्कूल । लड़कियों  का सालेम हाई स्कूल था । मिडिल स्कूल राष्ट्रीय स्कूल (यह 1946 में हाई स्कूल में तब्दील हुआ । ए.वी.आई.एम. स्कूल (ए.बी.आई.एममतलब एन्लेट वर्नाकुलर इंडियन मिडिल स्कूल) प्राय: हर वार्ड में प्राथमिक विद्यालय थे जिसका संचालन नगर पालिका करती थी .. वार्ड के नाम से  स्कूल जाने जाते जैसे अमीनपारा प्राथमिक शालाछोटापारा प्राथमिक शालानयापारा प्राथमिक शाला आदि... । प्रतिवर्ष इनका शहर में टुर्नामेंट होता ।

मिडिल व हाई स्कूल के लिये पहले शहर में प्रतियोगिता होतीफिर जिलाउसके बाद सम्भागीय टुर्नामेंट । बालाघाट उन दिनों छत्तीसगढ़ कमिश्नरी का हिस्सा था । सम्भागीय टुर्नामेंट में तीन दिन की छुट्टी रहतीबच्चे टुर्नामेंट देखने जाते । शहर के लोग भी जाते । ए.वी.आई.एम. स्कूल के हेटमास्टर ज्ञानसिंह अग्निवंशी थे - स्वतंत्रता संग्रामी । वहाँ पाद्धे सर थेवे गणेशउत्सव में नाटक प्रस्तुत करते - खुद भी बढ़िया गीतमय मिमिकरी करत पूरे शहर में फेमस थे 
उन दिनों लारी (सप्रे) स्कूल और हिन्दूहाई स्कूल की सोशल गेदरिंग प्रसिद्ध थी - तीन दिनों की सोशल गेदरिंग होती । अंतराष्ट्रीय नाटय  कर्मी हबीब तनवीर लारी स्कूल में पढ़े थे । हिन्दू हाई स्कूल के हेडमास्टर मोहनलाल जी पांडे एक कड़क हेड मास्टर तथा सामाजिक सरोकार के लिये शहर में जाने जाते थे । शहर छोटा था चार ही हाई स्कूल थे इसलिये हर स्कूल के शिक्षक को पढ़ने वाले बच्चे जानते - पहचानते थे - रास्ते में दिख जाए तो - कहते अरे उधर से फलां  स्कूल के फला सर आ रहे हैंउधर से नहीं इधर से चल ... । कॉलेज तो एक ही था - छत्तीसगढ़ कॉलेज के स्थापना वर्ष 1938 और प्राचार्य योगानंदनजी की अलग पहचान थी ... ।
गाँधी चौक कांग्रेस भवन के पीछे एक बाड़े में कन्या मिडिलि स्कूल चलता था । बाद में व स्कूल सुप्रिटेंडेन लेंड रिकार्ड ( गाँधी चौक लाखे स्कूल के नाम से ) के भवन में स्थानांतरित हो गयी और 1950में दानी स्कूल खुलने पर भी दानी स्कूल के साथ मर्ज कर दिया गया । कांग्रेस भवन के पीछे बाड़ा में फिर पब्लिक  हाई स्कूल आ गया यह 1976 तक रहा । दानी स्कूल बूढ़ा गार्डन में भवन बनाकर खोला गया - गनपतराव दानी जी ने दान दिया था ।
बूढ़ा गार्डन था - यहाँ नागरिकों का प्रवेश प्रतिबंधित था । यह तरह-तरह के फूल होते । रोज इन फूलों  के
गुलदस्ते बनाकर माली कलेक्टर,कमिश्नर और पालिका आधिकारियों के बंगलों में पहुँचाता । बूढ़ा गार्डन बच्चों के आकर्षण का केन्द्र रहा क्योंकि यहाँ जाम,नीबू-इमली गंगा इमलीअटर्रा आदि लगते और छोटे बच्चे  किसी तरह घुसकर इन्हें तोड़ने के  जुगत करते - अंदर घुसते तो आल्हादित होते - लेकिन माली भगाता ... रोज शाम का ऐसा नजारा दिखता, मैं भी उनमें शामिल होता ... । 
उन दिनों गिने-चुने सेलून थे - प्राय: हर रविवार को बाल काटने घर पर ही नाई आता । सेलून में कटिंग के चार आने लगते थे - चेथी (सर का पीछे का भाग) सपाट चिकना कराना हो तो पाँच आने लगते थे । उन दिनों रायपुर में एक फैशन चला - कालर रखने और कालर का एक तरफ का हिस्सा उठाकर रखने की बढ़िया कड़क कलप कराई जाती .... उन दिनों एक कहावत चला थी -
वन कालर अप
एंड वन कालर डाऊन
इट इज ए फैशन ऑफ रायपुर टाऊन ...  
ज्यादा दिन चला नहीं यह फैशन लोगों ने स्वीकार नहीं किया शायद सालभर चला हो ।
(.....जारी)

Thursday, August 17, 2017

रायपुर स्मृतियों के झरोखे से- 2- - प्रभाकर चौबे

        रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
         हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है । सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकूनभरा वो कस्बा ए रायपुर अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
  आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।

जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

        मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा थाखो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

चौथी कक्षा पास कर गाँव से मैं पढ़ने रायपुर भेजा गया पहले धमतरी में पढ़ने की बात सोची गई थी - लेकिन जमी नहीं  । अपने मौसेरे भाई के साथ धमतरी से रायपुर आया और मौसी के घर पर रहने लगा लेकिन जल्दी ही मेरा ट्रांसफर कर दिया गया । मतलब मुझे मौसी के घर से एक अन्य रिश्तेदार के घर रहने भेज दिया गया । उनका घर सत्ती बाजार से जो लेन बूढ़ापारा की तरफ मुड़ती है उसी कोने पर था । शहर में उन दिनों के प्रसिद्ध वैद्य बाबूरामजी शर्मा के बाड़े में हमारे रिश्तेदार दो कमरे किराये पर लेकर रहते थे - सरकारी मुलाजिम थे । इसी बाड़े के ऊपर तले में तीन कमरों में मराठी प्रायमरी स्कूल संचालित हो रही थी नाम था जानकी देवी प्राथमिक शाला, जिसकी स्थापना माधव राव सप्रे जी ने की थी ,अब यह स्कूल तात्यापारा वाली सड़क पर चला गया है - यहाँ कुसुमताई दाबके हाई स्कूल की कक्षाएं भी लगती है । सत्ती बाजार के तिगड्डे पर सब्जियाँ वाली भी पसरा लगाकर बैठती थीं । सत्ती बाजार में ही अम्बा देवी मंदिर के एक हिस्से में उन दिनों अखाड़ा भी चलता था । मैं जिन रिश्तेदार के घर रहता था वे तथा मेरे बड़े भाई अखाड़ा जाया करते थे। अम्बादेवी मंदिर भी काफी बड़ी जगह है अंदर वहाँ उन दिनों सावन में सावन का झूला डलता था । हम कुछ मित्र शाम को कभी-कभी यहाँ खेला करते थे । सत्तीबाजार में ही पटेरिया बुक डिपो था । पटेरिया बुक डिपो का अपना खुद का प्रिटिंग प्रेस था - 'कमला प्रेस' के नाम से । कमला प्रेस सत्ती बाजार के पीछे हिन्दू हाई स्कूल के बाजू में था । पटेरिया बुक डिपो के संचालक नंदकिशोर पटेरिया जी ने बच्चों के लिये 'प्पू गम्पू' नाम से बालकथा सिरीज का प्रकाशन शुरु किया था । सत्ती बाजार में कांसे पीतल के बर्तन बनते थे और दूकाने भी थीं । सत्ती बाजार में ही श्री राम बुक डिपो प्रसिद्ध किताब थी, ये दुकान-आज भी है । यहाँ उन दिनों पुरानी पाठय पुस्तकें आधे दाम पर खरीदी जाती थीं। रोड से लगकर डॉ. भालेराव की डिस्पेंसरी (क्लीनिक) थी । उनक पुत्र राजकुमार कॉलेज में प्राचार्य होकर रिटायर हुए । सत्ती चौरा के किनारे जो जगह थी वहाँ चाट का ठेला लगता था - ठेल वाले का नाम रामशरण था । नाम इसलिए याद है कि कभी-कभी मौसी कहती कि जा बेटा रामशरण के ठेले से चाट ले ... पहले महिलाएँ तो ठेले पर खड़ी होकर खाती नहीं थीं । सत्ती बाजार से एक सड़क बूढ़ापारा रोड की ओर मुड़ती थी, उसी से लगकर बाम्बे टेलर्स था, आज भी है। मैंने यहाँ पेंट और कमीज का नाप दिया था । शहर आने पर पहली बार दर्जी से कपड़े सिलवाये थे । उन दिनों विद्यालयों में यूनिफार्म नहीं होता था ।

सत्ती बाजार में शिवर्मशाला में हमारे एक रिश्तेदार के घर आई बारात ठहरी थी - हम बच्चों ने वहाँ खूब काम किया था - नाश्ता देना, पानी देना आदि ।
श्रीराम बुक डिपो के बाजू एक घड़ी सुधारने वाला बैठता - मैं कभी-कभी उसके पाटे पर बैठता वह मुझसे पढ़ाई के बारे में बातें कर लेता - उसने बताया था कि चौथी के बाद उसकी पढ़ाई छुड़ा दी गई और पिता के साथ घड़ी सुधारने के काम में लगा दिया गया । पढ़ाई में उसकी रुचि दिखती थी। सत्ती बाजार रोड पर श्रीराम बुक डिपो के सामने एक बोर्ड टंगा रहता था उस पर लिखा था ला बुक बाइंडर - मैं दुकान की तरफ देखता लेकिन उन दिनों समझ में नहीं आता कि यहाँ होता क्या है । सत्ती बाजार और सदर बाजार के मिलन स्थल पर रोड पर भटिया जी की दुकान थी यह शुद्ध घी के लिए प्रसिद्ध थी ।

1945 में रायपुर में कुछ ही हाईस्कूल थे - गवर्नमेंट हाई स्कूल, लारी स्कूल, बाद में नाम बदलकर सप्रे स्कूल किया गया , सेंटपाल स्कूल तथा हिन्दू सालेम गर्ल्स स्कूल (लड़कियों का स्कूल) और पब्लिक स्कूल आगे और कौन-कौन से स्कूल हाई स्कूल में अपग्रेड हुई थीं वह आगे आता जाएगा । श्री वापट मास्टर साहब का सत्ती बाजार में घर था । वे लारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए थे । एक और शिक्षक श्री शीतला चरण दीक्षित (दीक्षित मास्साब के नाम से प्रसिद्ध) वे भी स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था  बाद में वे हिन्दू हाई स्कूल में शिक्षक हुए । ए.वी.एम.स्कूल के उस समय के हेडमास्टर ज्ञानसिंह जी अग्निवंशी स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वालों में से थे - खादी पहनते थे । शहर छोटा था कुछ ही हाई स्कूल थे इसलिए हेडमास्टर्स तथा शिक्षकों के नाम हर विद्यालय के विद्यार्थियों को मालूम होते - उन दिनों मोहन लाल पांडे जी, आर.पी. श्रीवास्तव जी, संटेपाल स्कूल के हेडमास्टर आर.पी. शर्मा जी,दांडेकरजी, लारी स्कूल के हेड मास्टर इनके नाम पता थे और ज्ञान सिंह जी अग्निवंशी भी शहर में ंजाने जाते थे । शिक्षकों में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध पाद्धे मास्टर साहब थे । वे बूढ़ापारा लाखे बाड़ा में रहते थे - गणेश उत्सव में नाटक करते । खुद रोल करते... मिमिकरी बढिया करते । उन दिनों कम ही जगह गणेश बैठते । दुर्गा तो केवल काली बाड़ी में बैठती । काली बाड़ी समिति व स्कूल की स्थापना 1928 में हुई थी । 1945 में कांग्रेस भवन के पीछे एक बाड़ा में कन्या मिडिल स्कूल की स्थापना की गई। बाद में यह स्कूल लाखे स्कूल के सामने स्थित सुपरिनटेन्डेंट लैंड रिकार्ड के आफिस में स्थानांतरित कर दिया गया । शायद स्कूल का सरकारीकरण हो गया था ।
आगे की कड़ी में इस कन्या विद्यालय के सम्बन्ध में नयी जानकारी तथा बूढ़ा गार्डन पर बात होगी।

Monday, July 31, 2017

रायपुर - स्मृतियों के झरोखे से 1 - प्रभाकर चौबे

रायपुर - स्मृतियों के झरोखे से 1 - प्रभाकर चौबे

    रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
  हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है । सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता । 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकून भरा वो कस्बा ए रायपुर  अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । इसकी शुरुवात हम आज 31 जुलाई से  करने जा रहे हैं । 
       एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोगघटनाएंभूगोलसमाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
   आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।

जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा था, खो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

रायपुर : स्मृतियों के झरोखे से-1
प्रभाकर चौबे



सन् 1943 में पहली बार रायपुर आना हुआ मैं तब बच्चा था । सिहावा से बैलगाड़ी में धमतरी आए हम धमतरी से छोटी ट्रेन में बैठकर रायपुर - ट्रेन में बैठने का पहला अवसर था। एक रिश्तेदार के घर शादी में आए थे । बढ़ाई पारा में मौसी के घर ठहरे थे । रायपुर स्टेशन पर माँ ने टाँगा किया था - चार आने में उसने हमें बढ़ाई पारा पहुँचा दिया । आज जहाँ मंजू ममता रेस्ट्रारेंट है वह उन दिनों वहाँ नहीं था - उसी मकान से शादी हुई थी । बाद में वहाँ महाकौशल अखबार का दफ्तर लगने लगा । पहले वह साप्ताहिक अखबार था शायद 1950 में दैनिक किया गया । शादी निपटने के बाद एक दिन अपने मौसेरे भाई के साथ जो मुझसे काफी बड़े थेरायपुर घूमने निकला - आज भी याद है । जहाँ आज जयराम कॉम्पलेक्स है वहाँ शारदा टाकीज थी और सड़क किनारे में दुकानों से लगाकर सीमेंट का फुटपाथ बना था जो आगे चौराहे तक जाता था तब यह चौराहा जयस्तम्भ नहीं कहलाता था, 15 अगस्त 1947 से यह जयस्तम्भ चौक कहलाने लगा । इसी चौराहे के दूसरे छोर पर जहाँ आज गिरनार होटल है उस भवन में पब्लिक स्कूल था । चौराहे के उस छोर पर इम्पीरियल बैंक का भवन - उसके ऊपर अंग्रेजों का झंडा फहरा रहा था । दूसरी तरफ सीमेंट का फुटपाथ बना था जो आगे पोस्ट ऑफिस तक जाता था । इस फुटपाथ पर कटिंग करने वाले अपने डिब्बा लेकर बैठते दाढ़ी का एक आना और कटिंग का दो आना रेट था । कुछ फोटोग्रार भी अपना सामान लेकर यहाँ खड़े होते इसी से लगकर एक भवन था जिसमें कलकत्ता बैंक लगता था - मेरे मौसेरे भाई ने कहा था - यह है कलकत्ता बैंक । आगे दाहिनी ओर बेंसली रोड ( आज का मालवीय रोड) पर पोस्ट ऑफिस और पोस्ट आफिस से पहले सुपरिनटेंडेंट रेलवे पुलिस का दफ्तर और उसी भवन में डिप्टी डायरेक्टर एग्रीकल्चर का ऑफिस लगता था । दाहनी ओर पालिका का भवन था । पालिका भवन से पहले एक बड़ा-सा भव्य गेट था - उस पर लिखा था – केसर-ए- हिन्द दरवाजा ।
बेंसलीरोड में आगे बढ़ते चले जाने पर दाहिनी ओर डायमंड होटल था - काफी प्रसिद्ध। उसके मालिक थे बेचर भाई - फुटबाल मैच देखने के शौकीन - यह जानकारी मौसेरे भाई ने चलते हुए दी थी । उससे पहले ही बाबूलाल टाकीज थी । डायमंड होटल से लगकर एक बड़ा पीपल का दरख्त था - वैसे पूरे बंसली रोड में जगह जगह पीपल के पेड़ थे । सी बेंसली रोड पर डायमंड होटल के  सामने फ्रुट मार्केट था और फिलिप्स मार्केट   जिसे आज जवाहर बाज़ार के नाम से जाना जाता है। दरअसल वो जवाहिर मार्केट है जिसके बारे में आगे चर्चा करेंगे । आगे चौक पड़ता । चौक के बाई ओर कोने पर हबीब होटल था और दूसरी तरफ दाएं बाजू दूसरे कोने पर भांजीभाई की दुकान थी । उसी से लगे झाड़ की छाया में पसरा लिए कुछ फल बेचने वाली बैठती थी । भांजीभाई से लगकर एक इतर की दुकान थी आगे हनुमान जी मढ़िया थी - पीपल झाड़ के नीचे । बेंसली रोड के अंदर बाजू प्रसिद्ध गोल बाजार था । बेंसली रोड पर ही बाई ओर बाटा की दुकान थी और सामने कीका भाई की दुकान थी । आगे गोल्डन हाउस था । कोतवाली चौरहो से दाहिनी तरफ मुड़ने पर सदर में घुसते पर हम सड़क की तरफ बढ़े । मौसेरे भाई ने कहा कोतवाली से आगे देखने लायक कुछ है नहीं । मौसरे भाई ने फूल चौक पर चलते ही बताया - ये यादव न्यूज एजेंसी है। नागपुर से निकलने वाले अखबार शाम को यहाँ पहुँचते हैं इसी फूल चौक पर डॉ.टी.एम. दाबके का दवाखाना था । आगे जो एक गली जोरापार को निकलती है उस मोड़ पर दुर्ग जाने वाली बसों का बस अड्डा था - कोयले के भॉप से बसे चलती थीं ।
फूल चौक से तात्यापारा चौक की तरफ बढ़ने पर नगरपालिका के दो प्राथमिक स्कूल थे एक उर्दू प्राथमिक स्कूल और दूसरा हिन्दी प्राथमिक स्कूल यहाँ आज नवीन मार्केट है । आगे मिशन पुत्रीशाला थी । इस पुत्री शाला में पढ़ाने वाली शिक्षिका मिसेज फ्रांसिस जो सालेम गर्ल्स हाई स्कूल की प्राचार्य बनी ...
जारी''

Saturday, July 29, 2017

रायपुर - स्मृतियों के झरोखे से : 1 - प्रभाकर चौबे


  रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का 150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
  हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है । सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता । 
    बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकून भरा वो कस्बा ए रायपुर  अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं । इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी   स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । इसकी शुरुवात हम 31 जुलाई से  करने जा रहे हैं । 
    एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है , ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोग, घटनाएं, भूगोल, समाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की  यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके ।
   आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।

जीवेश प्रभाकर

सबसे पहले
अपनी बात

मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा था, खो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - 
अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...                               -प्रभाकर चौबे
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